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नई दिल्ली: काम की तलाश में ईंट के भट्टे पर रातें गुजारता परिवार और खानाबदोश जैसी जिंदगी। गरीब परिवार में माता-पिता के अलावा 8 भाई-बहन और हर दिन रोजी-रोटी का संकट। ना पढ़ाई-लिखाई का कोई बैकग्राउंड और ना ही आसपास ऐसा माहौल। यूं समझिए कि गहरे अंधेरे में गुजरती जिंदगी। वो कभी भट्टे पर ईंट बनाता था, तो कभी शादियों में भरी बारात के बीच कंधे पर लाइटें उठाता था। एक वक्त ऐसा भी आया, जब कैंसर की वजह से उसके पिता गुजर गए और घर में अंतिम संस्कार तक के पैसे नहीं थे। लेकिन, उसने हार नहीं मानी। वो लड़ा और खूब लड़ा। आखिरकार उसकी मेहनत रंग लाई और 9 भाई-बहनों के परिवार में सरकारी नौकरी पाने वाला वो पहला शख्स बन गया।ये कहानी है उत्तर प्रदेश में सम्भल जिले के रहने वाले सतीश की, जिन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वो एक सरकारी नौकरी हासिल कर पाएंगे। एक प्रवासी मजदूर परिवार से आने वाले सतीश का जन्म ईंट के भट्टे पर ही हुआ। परिवा इतना गरीब था कि 7-8 महीने घर से दूर-दराज के जिलों में ईंट भट्टे पर काम करता और बरसात के चार महीनों में घर लौटकर उन्हीं कमाए हुए पैसों से गुजारा करता। परिवार में सतीश के अलावा 8 भाई-बहन और थे। इनमें 6 बहनें थीं और सतीश को मिलाकर 3 भाई। सतीश पांच साल के हुए तो परिवार बेहतर जिंदगी की तलाश में देश की राजधानी दिल्ली आ गया। लेकिन, यहां आकर भी कुछ नहीं बदला
छोटे से कमरे में 11 लोगों का परिवार
सतीश का परिवार दिल्ली आ तो गया, लेकिन हालात पहले जैसे ही रहे। हर दिन कुआं खोदकर पानी पीना। मजूदरी मिली तो ठीक, वरना पूरा परिवार मोहताज। सतीश पढ़ना चाहते थे, लेकिन ना तो पढ़ाई-लिखाई का कोई बैकग्राउंड था और ना ही घर में ऐसा माहौल। किसी तरह से उनका एडमिशन सेकंड क्लास में हो गया और वो स्कूल जाने लगे। एक छोटे से कमरे के घर में 11 लोगों का परिवार रहता था, जहां ना पर्याप्त बिजली थी और ना कोई सुविधा। सतीश के एक भाई पिता के साथ दिहाड़ी मजदूरी करते और दूसरे जुराब की फैक्ट्री में काम। ऐसे में सतीश शादियों में कंधे पर लाइटें ढोने का काम करने लगे। ये वो वक्त था, जब उन्हें नशे जैसी कुछ बुरी आदतें भी लग चुकी थीं।
बारात में पैसे उठाते हुए मार दिया थप्पड़
एक दिन सतीश शादी में कंधे पर लाइट ढो रहे थे और बारात में जो पैसे लुटाए जाते थे, उन्हें उठाने लगे। अचानक लाइट का तार टूट गया और बारात में शामिल एक शख्स ने उनका गिरेबान पकड़कर उन्हें थप्पड़ मार दिया। बस यहीं से सतीश ने तय कर लिया कि अब वो कभी शादियों में लाइट उठाने का काम नहीं करेंगे। उन्होंने पढ़ाई पर फोकस करना शुरू किया। परिवार ने भी साथ दिया। पड़ोस के लोग कहते थे कि पढ़ा-लिखाकर क्या करोगे, इसे भी काम पर भेजो। लेकिन, उनके माता-पिता ने कहा कि कम से कम परिवार का एक लड़का तो पढ़ जाए। हालांकि, आर्थिक तंगी कई बार उनके रास्ते में आई। एक बार तो परिवार ने सोचा कि वापस गांव चलते हैं, कम से कम कमरे का किराया तो नहीं देना पड़ेगा।
कोचिंग की फीस के लिए करने लगे मजदूरी
ऐसे में सतीश के एक टीचर ने उन्हें समझाया और कहा कि यहीं रहकर पढ़ाई करो, कभी ना कभी वक्त बदलेगा। अब सतीश ने तय किया कि वो अंग्रेजी सीखेंगे। ट्यूशन के लिए बात की तो पता चला कि फीस 200 रुपये है। अब इस फीस का इंतजाम करने के लिए सतीश भी दिहाड़ी मजदूरी करने लगे। वो शाम तक काम करते और इसके बाद अंग्रेजी की कोचिंग क्लास लेते। काम से लौटते वक्त सतीश छिप-छिपकर घर आते कि कहीं कोचिंग का उनका कोई साथी उन्हें देख ना ले। वक्त बीता तो उन्होंने खुद भी अंग्रेजी की कोचिंग देना शुरू कर दिया।
छोटे से कमरे में 11 लोगों का परिवार
सतीश का परिवार दिल्ली आ तो गया, लेकिन हालात पहले जैसे ही रहे। हर दिन कुआं खोदकर पानी पीना। मजूदरी मिली तो ठीक, वरना पूरा परिवार मोहताज। सतीश पढ़ना चाहते थे, लेकिन ना तो पढ़ाई-लिखाई का कोई बैकग्राउंड था और ना ही घर में ऐसा माहौल। किसी तरह से उनका एडमिशन सेकंड क्लास में हो गया और वो स्कूल जाने लगे। एक छोटे से कमरे के घर में 11 लोगों का परिवार रहता था, जहां ना पर्याप्त बिजली थी और ना कोई सुविधा। सतीश के एक भाई पिता के साथ दिहाड़ी मजदूरी करते और दूसरे जुराब की फैक्ट्री में काम। ऐसे में सतीश शादियों में कंधे पर लाइटें ढोने का काम करने लगे। ये वो वक्त था, जब उन्हें नशे जैसी कुछ बुरी आदतें भी लग चुकी थीं।
बारात में पैसे उठाते हुए मार दिया थप्पड़
एक दिन सतीश शादी में कंधे पर लाइट ढो रहे थे और बारात में जो पैसे लुटाए जाते थे, उन्हें उठाने लगे। अचानक लाइट का तार टूट गया और बारात में शामिल एक शख्स ने उनका गिरेबान पकड़कर उन्हें थप्पड़ मार दिया। बस यहीं से सतीश ने तय कर लिया कि अब वो कभी शादियों में लाइट उठाने का काम नहीं करेंगे। उन्होंने पढ़ाई पर फोकस करना शुरू किया। परिवार ने भी साथ दिया। पड़ोस के लोग कहते थे कि पढ़ा-लिखाकर क्या करोगे, इसे भी काम पर भेजो। लेकिन, उनके माता-पिता ने कहा कि कम से कम परिवार का एक लड़का तो पढ़ जाए। हालांकि, आर्थिक तंगी कई बार उनके रास्ते में आई। एक बार तो परिवार ने सोचा कि वापस गांव चलते हैं, कम से कम कमरे का किराया तो नहीं देना पड़ेगा।
कोचिंग की फीस के लिए करने लगे मजदूरी
ऐसे में सतीश के एक टीचर ने उन्हें समझाया और कहा कि यहीं रहकर पढ़ाई करो, कभी ना कभी वक्त बदलेगा। अब सतीश ने तय किया कि वो अंग्रेजी सीखेंगे। ट्यूशन के लिए बात की तो पता चला कि फीस 200 रुपये है। अब इस फीस का इंतजाम करने के लिए सतीश भी दिहाड़ी मजदूरी करने लगे। वो शाम तक काम करते और इसके बाद अंग्रेजी की कोचिंग क्लास लेते। काम से लौटते वक्त सतीश छिप-छिपकर घर आते कि कहीं कोचिंग का उनका कोई साथी उन्हें देख ना ले। वक्त बीता तो उन्होंने खुद भी अंग्रेजी की कोचिंग देना शुरू कर दिया।
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